ज़रा सोचिए कि जब भी हम कोई काम बहुत मेहनत से, कड़ी लगन से करते हैं, उसके लिए बहुत तैयारी करते हैं और फिर इसी वजह से वह काम शानदार ढंग से पूरा भी हो जाता है, फिर क्या होता है? हम ड्रेसअप बहुत अच्छे ढंग से होते हैं, पेंटिंग अच्छी बनाते हैं, हमारी कोई डिश ही हमारे हाथों के ज़ायके तक लोगों को खींच लाती हैं, हमारा घर सजाने का सलीका या बातचीत की स्टाइल क़ाबिलेतारीफ़ हो, इन सबके चलते फिर क्या होता है?
होता ये है कि अपनी इस मेहनत या कामयाबी की ऐवज में हम चाहते हैं कि हमें थोड़ी तारीफ़ मिले, हमें एप्रिशियेट किया जाए। अब इस पर बहुत से लोग कह सकते हैं कि इससे क्या फ़र्क पड़ता है तो यकीन कीजिए आप, इससे न सिर्फ़ फ़र्क पड़ता है, बल्कि बहुत ज़्यादा फ़र्क पड़ता है। इससे कॉन्फिडेंस बढ़ता है, हमारे हुनर में निखार आता है, फ्यूचर में और अच्छा परफॉर्म करने की मोटिवेशन मिलती है। तारीफ़ हमें न सिर्फ़ पर्सनली अच्छा महसूस कराती है, बल्कि इसकी बदौलत हम एक टीम के रूप में भी ज़्यादा अच्छा रिज़ल्ट दे सकते हैं।
अब देखिए, जिस तारीफ़ को पाने के इतने सारे फ़ायदे हैं, जिसके लिए हम इतनी कोशिश करते हैं, वही तारीफ़ जब होने लगती है तो हम उसे ठीक से ले भी नहीं पाते हैं और संकोच में पड़ जाते हैं या शर्माने लगते हैं। अगर ऐसा नहीं करते हैं तो यूं कर बैठते हैं कि अपनी काबिलियत या उस गुण को ही हल्के में ले लेते हैं, जिसके चलते हमारी तारीफ़ उस वक़्त हो रही है, जैसेकि अगर हमारी किसी रेसिपी की तारीफ़ करे तो हम कह देते हैं कि ये तो बस यूं ही बन गई। हमारी किसी ड्रेस की तारीफ़ हो तो हम अक्सर कह उठते हैं कि ये तो फ़लां जगह से ली या ये तो बहुत सस्ती सी है या फिर अब तो ये पुरानी हो गई है।
बात अगर प्रोफेशनल लाइफ की हो तो भी हम अकसर ये ग़लती कर जाते हैं। किसी प्रोजेक्ट की कामयाबी की तारीफ़ पर झेंपने से लगते हैं और उसका सारा क्रेडिट दूसरों को देने लगते हैं। अगर ये प्रोजेक्ट टीम वर्क था, तब तो फिर भी ठीक है, लेकिन अगर वह सारा प्रोजेक्ट आपने ख़ुद किया है, तब तो ऐसा करना पूरी तरह से ग़लत है। कहने का मतलब ये कि अगर अच्छे काम के लिए दूसरों की तारीफ़ करना एक हुनर है तो ख़ुद की किसी ख़ूबी पर तारीफ़ को एक्सेप्ट करना भी एक हुनर है और जब बात हो आज की प्रोफेशनल लाइफ की तो अपनी इस स्किल को स्ट्रॉन्ग करना और भी ज़रूरी हो जाता है। सो पेश हैं कुछ टिप्स-
तारीफ़ को सहजता से स्वीकारें
जब भी कोई आपकी तारीफ़ करे तो आप उसे सहजता से स्वीकार कीजिए। न तो तारीफ़ करने वालों को शक की निगाह से देखिए, न अपनी काबिलियत पर ही शक कीजिए। तारीफ़ हो ही इसलिए रही है कि आपमें वह गुण है। सो तारीफ़ करने वाले को शुक्रिया कहना न भूलें। ये काम सहजता से ही कीजिए। ये तारीफ़ आपके हुनर की है, इसलिए ख़ुद पर भरोसा बनाए रखिए।
बहुत जोश में न आएं
तारीफ़ सुनकर कभी भी बहुत ज़्यादा जोश में आने या फूल कर कुप्पा होने की भी ज़रूरत नहीं है। ये संतुलन या बैलेंस बना कर चलने की आदत ज़िंदगी में उस वक़्त भी आपके बहुत काम आएगी, जब कभी आपसे ग़लती हो जाए या अगली बार वही काम ज़्यादा अच्छे ढंग से न हो। अगर आप एक ही बार की तारीफ़ में फूल कर कुप्पा हो जाएंगे तो ऐसी ग़लती होना बड़ा स्वाभाविक सा है। अपनी तारीफ़ पर सहज बने रहिए और बस एक मुस्कान भरी प्रतिक्रिया ही काफ़ी है।
तारीफ़ पर घमंड न करें
तारीफ़ वैसे तो मिलती ही बड़ी मुश्किल से है और जब मिलती है तो उसे कायदे से संभालना भी एक कला ही है। ये तारीफ़ आपके गुण या कामयाबी की ज़रूर है, लेकिन इस पर अभिमान भूलकर भी न करें। बस एक मशहूर फिल्म के इस डायलॉग को याद रखिए कि इस काम को मैं कर सकता हूं, ये सोचना मेरा विश्वास हो सकता है, लेकिन इस काम को सिर्फ़ मैं ही कर सकता हूं, ये सोचना मेरा घमंड है। इन दोनों के बीच के फ़र्क को हमेशा याद रखिए, क्योंकि रेस में जीतने वाला भी हारने वाले से ज़रा सी ही दूरी पर दौड़ रहा होता है।
तारीफ़ के बदले तारीफ़ न शुरू कर दें
अपनी तारीफ़ सुनना अच्छा लगता है और दूसरों की तारीफ़ करना अच्छी आदत है, लेकिन ये तारीफ़ के बदले तारीफ़ जैसी नहीं होनी चाहिए, जैसेकि अगर कोई आपकी ड्रेस की तारीफ़ करे तो बदले में उसकी तारीफ़ के पुल बांधने से पहले ये ज़रूर देख लीजिए कि क्या वाकई उस वक़्त उसने ऐसा कुछ पहना हुआ है, जो तारीफ़ के क़ाबिल है या आप सिर्फ़ फॉरमैलिटी ही पूरी कर रही हैं। अपनी बेहतरीन ड्रेस पर मिले कॉम्प्लिमेंट के बदले अगर आप सामने वाली की साधारण सी ड्रेस की भी बढ़ा-चढ़ाकर तारीफ़ करने लग जाएंगी तो इससे आपका इंप्रेशन ख़राब हो सकता है और ईमानदारी पर भी सवाल उठ सकता है। ऐसे में जब कभी आप सच्ची भावना से भी किसी की तारीफ़ करेंगी, तब भी उसे आप पर यक़ीन नहीं होगा। तारीफ़ ज़रूर कीजिए, मगर ईमानदारी और सच्चाई से, सिर्फ़ औपचारिकता पूरी करने के लिए नहीं।
विनम्र बनिए, दब्बू नहीं
अपनी तारीफ़ को विनम्रता से स्वीकार कर लेना अच्छी बात है, लेकिन उस पर झेंपना तो कमज़ोरी ही मानी जाएगी, अगर आप अपनी तारीफ़ पर कहने लगें कि ऐसी तो कोई बात ही नहीं है। ये तो सब औरों की मेहरबानी है या मैंने तो कुछ किया ही नहीं, सिर्फ़ आपका आशीर्वाद है। बेशक औरों की दुआएं या गुडविशेस काम करती हैं, लेकिन सबसे ऊपर होती है आपकी मेहनत, लगन और आपका हुनर। अगर अपने काम की तारीफ़ पर आप हर बार यूं ही झेंपने लगें तो बहुत मुमकिन है कि लोगों को लगने लगे कि ये काम वाकई आपने ख़ुद ही पूरा किया है या किसी और की मदद ली है। ये भी हो सकता है कि आपकी दब्बू आदत का फ़ायदा उठाकर आप के किए हुए काम का क्रेडिट दूसरे लेने लगें। अगर हुनर आपका है तो उसकी तारीफ़ पर भी आप ही का हक़ होना चाहिए।
अपना क्रेडिट मौका देखकर ही शेयर कीजिए
अगर तारीफ़ किसी टीम वर्क की हो रही है तो ज़ाहिर है कि उसमें सभी की मेहनत शामिल है। ऐसी स्थिति में अपनी तारीफ़ का क्रेडिट सभी के साथ साझा करना टीम स्पिरिट होती है, लेकिन अगर तारीफ़ आपकी किसी निजी ख़ूबी की हो रही है तो उसका क्रेडिट ख़ुद को देते हुए भी आपको बहुत ज़्यादा संकोच करने या सोचने की ज़रूरत नहीं है। हां, बस ध्यान ये रखने की ज़रूरत है कि ख़ुद को क्रेडिट देने के चक्कर में कहीं आप अपनी ही तारीफ़ों के पूल पर पूल बांधकर अपने मुंह मियां मिट्ठू जैसी सिचुएशन तो क्रियेट नहीं कर रही हैं। यहां बस इतना ही काफ़ी है कि हां, बेशक इस काम के लिए आपने काफ़ी मेहनत की थी। सो अब आप ख़ुश हैं।
तारीफ़ की रामकहानी न सुनाने लगें
किसी भी बात की तारीफ़ होने पर उससे जुड़ी डिटेल्स में तब तक न जाएं, जब तक कि उसके बारे में सचमुच पूछा न जाए। कई बार ऐसा होता है, जब तारीफ़ पाने वाला उससे जुड़ी इतनी लंबी रामकहानी सुनाने लगता है कि तारीफ़ करने वाला मन ही मन पछताने लगता है, जैसेकि अगर कोई आपकी किसी चीज़ की तारीफ़ करे तो उसे ये सब मत बताने लग जाएं कि ये कब, कहां, कैसे, क्यों ख़रीदी थी या ली गई थी, वगैरह-वग़ैरह।
बॉडी लैंग्वेज और पॉश्चर ठीक रखिए
इसका तो ख़याल रखना बहुत ही ज़रूरी है, क्योंकि जब तारीफ़ हो तो न तो ख़ुशी से उछलना या हाथ-पैर ज़्यादा हिलाना शुरू कर दीजिए, न ही सकते की सी हालत में खड़े रहिए। शर्म से दोहरे होने की भी ज़रूरत नहीं है और न ही मुस्कुराने के नाम पर आपकी स्माइल चेहरे से बाहर निकलने को बेताब हो। बस सहज बने रहिए।
तारीफ़ और चापलूसी में फ़र्क ज़रूर जानिए
इस बारे में फ़र्क समझने के लिए सबसे पहली बात तो यही जानना ज़रूरी होता है कि हमारी या हमारे काम की तारीफ़ हो कहां रही है। घर में या ऑफिस में और करने वाला कौन है। साथ ही ये भी ज़रूर महसूस कीजिए कि तारीफ़ करने का उसका ढंग कैसा है। एक रिसर्च कहती है कि लोग आपकी तारीफ़ तब ज़्यादा करते हैं, जब उन्हें आपसे कोई काम निकलवाना होता है। सो चाहे हम कितने भी तारीफ़-पसंद क्यों न हों, सामने वाले के अंदाज़ को तो महसूस कर ही लेते हैं कि ये वाकई तारीफ़ है या चापलूसी। सो अपना बिहेवियर भी उसी के हिसाब से रखें। अगर तारीफ़ है तो उसे कुबुल कीजिए और अगर चापलूसी है तो सतर्क हो जाइए या इग्नोर कर दीजिए, ताकि ये आपकी कमज़ोरी या आपको इस्तेमाल करने का ज़रिया न बन जाए। अकसर लोग दूसरों की तारीफ़ के पुल बांधकर अपने लिए रास्ते बनाने में माहिर होते हैं।